
शिकायत हैं मुझे उस समाज से,
अंधविश्वास में जीते हर उस इन्सान से,
दिल में बसते उनके मंद - बुधि जज्बात से...
कहते है वो,
पुरखो से चलती आई, परम्परागत विद्या,
ये महान है।
करेंगे सब कुछ, इसे ही मानते वो अपनी आन है,
सत्य से ना जाने, वो क्यों अंजान है,
मेरी नज़रों में, ये मुर्खता अतिमहान हैं।
शिकायत हैं मुझे उस समाज से,
आँखों पे अँधा नकाब ओढ़े,
अंधेरो में राह तलाशने के प्रयास से।
पाखंडी बाबाओ में धोंदतें,
वो तेरा स्वरुप निरंकार हैं,
विज्ञानं का ज्ञान नहीं, परम ज्ञान का जिन्हें अहंकार हैं।
ना जाने समस्या का, ये कैसा समाधान हैं,
जहाँ नर बलि जैसी प्रथा भी, लगती आम है।
शिकायत हैं मुझे उस समाज से,
अन्धें कुए में डूब,
प्यास बुझाने के रस्मो - रिवाज़ से।
वंश बढ़ाने को वो तत्पर, हर बार हैं,
पर एक नन्ही पारी के आगमन को,
मानते वो एक अभिशाप हैं।
वासना की हवस में,
करते है वो, जो दुष्कर्म,
तुम्ही कहो, क्या नहीं
वो सबसे घिंनोना पाप हैं।
पर मानो या ना मानो,
अन्धविश्वासो की इस दुनिया में,
सब कुछ माफ़ हैं।
एक अंधी बस्ती हैं,
अँधेरे में भटकता, एक अधमरा समाज है।
दिन ओ दिन बढ़ता रहता,
ऐसा ये अन्धविश्वास हैं।
अँधेरे को चीरती रौशनी की,
मुझे एक आस हैं।
अन्धविश्वासो को तोड़,
ज्ञान की एक प्यास है,
होंगें कामयाब हम, अब एक दिन
दिल को मेरे ये विश्वास हैं।
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kya kahne hai....gud...achcha hai....aabhaar aapka...
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